पडरौना जमींदारी ब्रिटिशकालीन भारत के गोरखपुर प्रान्त की एक महत्वपूर्ण जमींदारी थी जिसके शासक क्षत्रिय वर्ण के गहरवार या गहदवाल वंश से सम्बंधित हैं। पडरौना शब्द की उत्पत्ति के बारे में ऐसी मान्यता है की यह नाम पांडर नाम के वृक्ष से पड़ा जो की इस क्षेत्र में बहुतायत में पाया जाता था; हालाँकि अब यह नहीं के बराबर है। शुरुवाती दौर में इस क्षेत्र को पंडरान नाम से जाना जाता था जो धीरे धीरे पडरौना हो गया। पडरौना के शासक सूर्यवंशी शाखा से आते है और अपने आप को चंद्र देव का वंशज मानते है, जिन्होंने ११वी शताब्दी में वाराणसी के समीप एक छोटा सा राज्य स्थापित किया था।
10.1 हिन्दू मिथको और इतिहास के अनुसार इनकी उत्पत्ती
गहरवार क्षत्रियों का उल्लेख वैदिककालीन सभ्यता में मिलता है और उन्हें बिसेन और चंदेल क्षत्रियो की ही तरह अति-प्राचीन क्षत्रिय माना जाता है। मिथको के अनुसार मनु की बेटी ईला थी जिसकी शादी हिमालय के राजा चंद्र के पुत्र बुद्ध से हुई थी। इस सम्बन्ध से पुरुरवा का जन्म हुआ, जिन्होंने प्रस्थानपुर नाम का राज्य बसाया, जो वर्तमान समय में इलाहाबाद के समीप झूँसी नाम से जाना जाता है। राजा पुरुरवा को चंद्रवशी शाखा का प्रथम पुरुष माना जाता है। इसी वंश में 45वे राजा महाभारत कालीन युधिष्ठिर हुए जिन्होंने इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) की राजगद्दी अर्जुन-पुत्र परिक्षित को सौप दिया। राजा युधिष्ठिर से ले उसी वंश के कुल 30 राजाओ ने इंद्रप्रस्थ पर राज किया। तीसवें राजा क्षेमक थे जिनकी हत्या उन्ही के मंत्री विशरव ने कर स्वतः को इंद्रप्रस्थ का नया शासक घोषित कर दिया। इस वंश से कुल 14 राजा हुए जिन्होंने इंद्रप्रस्थ पर राज किया। अंतिम राजा की हत्या उसी के मंत्री विरमह ने कर राज्य को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद इंद्रप्रस्थ पर विरमह वंश के 16 राजा और धनाधार वंश के 9 राजा हुए। धनाधार वंश के 9वे राजा राजपाल हुए जो कुमाउँनी राजा समता महापाल के हाथो मारे गए। कुमाउँनी राजा ने कुल 14 सालो तक राज्य किया। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने उसे पराजित कर कन्नौज और अवध सहित समूचे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। राजा विक्रमादित्य ने 56 ईसा पूर्व में शको को हरा विक्रम सम्वत पंचाग की शुरुवात की जो पुरे उत्तर भारत में प्रसिद्ध है और जिसे नेपाल में आधिकारिक पंचांग का दर्जा मिला हुआ है। विक्रमादित्य ब्राह्मण धर्म के एक बड़े अनुयायी थे और शिव और विष्णु के बड़े भक्त थे। इसी कारण ब्राह्मण धर्म के अनेक मिथकीय कहानियो से विक्रमादित्य को जोड़ा गया है। इन कहानियो में विक्रम-बैताल और सिंहासन-बत्तीसी जैसी कुछ कहानियाँ अति-प्रसिद्ध है। भविष्य-पुराण ने विश्व के दस महान राजाओं में से विक्रमादित्य को एक बताया है। ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों में विक्रमादित्य का नाम इतना प्रसिद्ध हुआ की उनके बाद के समय में अनेक राजाओ ने "विक्रमादित्य" को एक माननीय उपाधि के रूप में धारण किया। उपाधि धारण करनेवालो में गुप्त साम्राज्य के प्रसिद्ध राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय (375 - 415 ईसवी ) थे जिनका काल भारत में "स्वर्ण काल" के नाम से जाना जाता है।
मिथक अनुसार मनु से राजा विक्रमादित्य तक कुल 114 राजा हुए। यदि हर राजा का शासन-काल 20 साल माना जाये तो मनु का काल खंड ईसा पूर्व 2300 के आस-पास आता है। यह वह समय है जिसे प्राप्त साक्ष्यो के आधार पर इतिहासकार आर्यो के सिंधु या इंडस घाटी में आने का समय मानते है। ठीक इसी तर्ज पर महाभारत कालीन राजा युधिष्ठिर का शासन-काल ईसा पूर्व 1400 के आस-पास आता है जो की इतिहासकारो द्वारा मान्य काल-खंड ईसा पूर्व 1200-900 के काफी करीब है। हालाँकि कुछ इतिहासकार महाभारत काल-खंड को ईसा पूर्व 3500 के आस-पास बताते है। ऐसा तभी होता है जब मिथकीय कहानियो में वर्णित राजाओ या वंशो के शासन-काल को ठीक उसी तरह गणना के लिए लिया जाता है। उदाहरण के तौर पर राजा युधिष्ठिर से ले क्षेमक तक एक वंश के कुल 30 राजा हुए जिन्हें इंद्रप्रस्थ पर 1740 सालो तक राज्य करते बताया गया है। इस तरह इस वंश के हर राजा का औसत शासन-काल लगभग 58 साल आता है। इसी तरह इस वंश के बाद और विक्रमादित्य के पहले इंद्रप्रस्थ पर अन्य वंशो के हर राजा का औसत शासन-काल लगभग 35, 28 और 42 साल आता है। विक्रमादित्य से पृथ्वीराज चौहान तक, अर्थात अगले 1200 सालो में जब इतिहास लिखने की शुरुवात हो चुकी थी, इंद्रप्रस्थ अर्थात दिल्ली पर हर वंश के राजा का औसत शासन-काल 23, 19, 12, 13, 18 और 17 साल आता है।[3] पूरी मानव सभ्यता के विकास में इसकी बहुत ही कम सम्भावना है की वैदिक काल में मानव, खास तौर पर एक राजा की, औसत उम्र ईसा बाद के मानव की औसत उम्र से ज्यादे थी। इन सब बातो को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है की मिथकीय कहानियो में दर्ज हर वंश का काल-खंड सच्चाई से काफी दूर है। ऐसा होना भी संभव है क्योंकि उस काल में राजाओ की कहानियाँ स्मृति रूप में और लोक नृत्यों या नाट्यो द्वारा याद रखा और जन-जन तक पहुचाया जाता था।
ग्यारहवी सदी के शुरुवात में, उज्जैन पर परमार राजपूत वंश के राजा भोज का शासन था। इनका राज्य उज्जैन से ले कन्नौज तक फैला हुआ था। राजा भोज की ख्याति भी विक्रमादित्य की तरह खूब फैली। उन्ही के वंश में बासदेव हुए जो राजा भोज के 50 सालो के बाद उज्जैन के राजा हुए। बासदेव के दो पुत्र थे जो आपस में लड़ते हुए मारे गए। तत्पश्चात रामदेव, जो राज्य के सेनापति थे, ने स्वंय को कन्नौज प्रान्त का राजा घोषित कर लिया। रामदेव ने अपने राज्य का कुछ हिस्सा (वर्तमान मानिकपुर) अपने भाई मानदेव को दे दिया। [4] मानदेव ने इस क्षेत्र का नाम मानपुर रखा। रामदेव के परिवार में आगे चल जयचंद और मानिकचंद पैदा हुए जो क्रमशः कन्नौज और मानपुर के राजा बने। आगे चल मानिकचंद ने मानपुर का नाम बदल मानिकपुर रख दिया। कन्नौज राजा जयचंद की सुपुत्री संयोगिता थी जिनकी शादी प्रसिद्ध राजपूत राजा पृथ्वीराज चौंहान के साथ हुई। सन 1194 में महमूद गोरी के हाथो जयचंद की हार और मृत्यु के पश्चात राजा मानिकचंद बनारस की तरफ चले गए। वहां उन्होंने इलाहाबाद के दक्षिण और विंध्याचल पर्वत के नीचे अपना राज्य बसाया जो वर्तमान में कंतित राज के नाम से जाना जाता है। उनके द्वारा बसाया पूरा राज्य आज वर्तमान में इलाहबाद और मिर्जापुर जिलो में विभाजित है। मानिकचंद के चार बेटे हुए जिनका नाम तलदेव, अलदेव, लक्ष्मणदेव और प्रेमजीत था। तलदेव, जिन्हें जयचंद ने मृत्यु-पूर्व कन्नौज का उत्तराधिकारी घोषित किया था, की हार सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथो चांदवार, इटावा में हुई। हार के पश्चात तलदेव मारवाड़-बीकानेर की तरफ चले गए और वहाँ जाकर अपना राज्य स्थापित किया। अलदेव की पीढ़ी में राजा गोदान देव (गदन) हुए जिन्होंने सन 1401 (1542 ??) ईसवी में कंतित-बीजापुर राज की स्थापना की। गदन देव की पीढ़ी ने कालांतर में इलाहाबाद में मण्डा और दैया जमींदारी की भी स्थापना की। [5] [6]
गदन देव की पीढ़ी में दादू राय हुए जिन्होंने कंतित पर राज किया। दादू राय काफी प्रसिद्ध हुए और लोक-गीत कजली / कजरी से उनका सम्बन्ध मिलता है। अपने एक निबन्ध में भारतेंदु हरिश्चन्द्र लिखते है - कंतित देश में एक समय गहरवार क्षत्रिय दादू राय हुए । उन्होंने मारा, बीजापुर इत्यादि जगहों पर राज किया। उनके किलों के अवशेष आज भी विंध्याचल देवी के मंदिर के समीप नाले के पास मिलते है। उन्होंने अपना गढ़ चार मैराग के बीच बनाया और मुसलमानो के गंगा जल छूने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। एक समय उनके राज्य में अकाल पड़ा। उनके द्वारा अनेक तरह के धार्मिक कर्म-कांड किये जाने के पश्चात वहां फिर बारिश हुई। दादू राय की मृत्यु और रानी के सती होने पर कंतित राज की महिलाओ ने अपनी राग और धुनों में उनकी कीर्ति को गाना शुरू किया। इस तरह इन गानो को कजली कहा गया।" कजली के बारे में ठीक इसी तरह का विवरण रामगरीब चौबे देते है, और लिखते है - दादू राय की मृत्यु के पश्चात मुसलमानो ने गंगा को छुआ और हिन्दुओ पर तरह तरह के अत्याचार किये। ऐसा प्रतीत होता है की मुसलमानो ने जनानखानों को नुकसान पहुचाया। जिससे भी हो पाया वह सभी लोग एक बड़ी संख्या में अपने घर की महिलाओं के साथ राजधानी के समीप जंगलो की तरफ भागे। वे सभी मुसलमानो द्वारा अपने ऊपर थोपे गए कठिनाइयों और बेइज्जती को गाते रहते थे जो कालांतर में कजली नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस समय के कजली की कुछ पंक्तिया आज भी मिर्जापुर जिले के पढ़े लिखे वर्ग में प्रचलित है –
जल्द आ रहा है.....अब हिंदी में........... २०१७ अंत तक......
"The socio-religious Evolution of Northern India and the Ancient Communities in Present day India" के लेखक द्वारा....
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2. http://mahabharata.sainthwar.tripod.com/